लोन मिला, लेकिन बाजार में कमी: मुज़फ़्फ़रपुर के लहठी कारीगरों की कठिनाई

मुज़फ़्फ़रपुर के लहठी कारीगरों की कठिनाई

मुज़फ़्फ़रपुर के लहठी कारीगरों की कठिनाई का नाम सिर्फ ऐतिक और सांस्कृतिक धरोहर के लिए नहीं, बल्कि इसके कारीगरी और हस्तशिल्प के लिए भी जाना जाता है। इनमें से एक पारंपरिक कला लहठी, यानी कांच की चूड़ियाँ बनाने की है। यह कला अनेक पीढ़ियों से कई परिवारों का भरण-पोषण कर रही है। लेकिन आज का दौर इस पेशे के लिए बड़ी चुनौतियाँ लेकर आया है, जिसमें आधुनिक बाजार के प्रभाव, कीमतों में गिरावट और बदलते फैशन रुझान शामिल हैं।

हाल ही में जानकारी सामने आई है कि लहठी कारीगरों को अल्पसंख्यक वित्त निगम से लोन प्रदान किया गया है, लेकिन उन्हें अपने उत्पादों के लिए उचित बाजार नहीं मिल पा रहा। इससे वे गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं, और उनकी बचत भी अब समाप्त होने की कगार पर है।

लहठी कारीगरी: एक सांस्कृतिक परंपरा और पहचान

लहठी बनाना सिर्फ एक आजीविका का जरिया नहीं है, बल्कि यह एक समृद्ध पारंपरिक कला भी है। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर सहित कई क्षेत्रों में महिलाएं विवाह समारोह और त्योहारों के दौरान इन खूबसूरत रंग-बिरंगी चूड़ियों को पहन चुकी हैं।

कारीगर कांच से बारीकी से चूड़ियों का निर्माण करते हैं, उन्हें विविध रंगों से सजाते हैं और फिर इनका वितरण बाजारों तक करते हैं। हालांकि, इस शिल्प की मेहनत और कला आज के समय में संघर्ष कर रही है।

समस्या कहाँ निहित है?

  • बाजार की कमी – पहले स्थानीय हाट और मेलों में लहठी की अपेक्षाकृत अच्छी माँग थी, लेकिन अब फैक्ट्री में बने सस्ते और आकर्षक चूड़ियों ने इनका बाजार छीन लिया है। 
  • कम दाम – कारीगरों को उनके काम की मेहनत के अनुरूप बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। मुनाफा इतना नहीं होता कि परिवार के खर्चों का सही तरीके से प्रबंधन किया जा सके। 
  • लोन का बोझ – अल्पसंख्यक वित्त निगम से लिया गया लोन अब उनके लिए बोझ बन गया है। बिक्री में कमी के चलते, उनके पास किस्तें चुकाने की पर्याप्त आय नहीं है। 
  • तकनीक और मार्केटिंग की कमी – कारीगर ऐसे पारंपरिक तरीकों से कार्य कर रहे हैं जिन्हें आधुनिक तकनीक और डिजिटल मार्केटिंग का सहारा नहीं मिला है, जिससे वे बड़े बाजार तक पहुँचने में असफल हैं।

कारीगरों की कठिनाइयाँ

  • लगभग 110 कारीगर वर्तमान में दोहरी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। 
  • एक तरफ, उन्हें बाजार से मिलने वाली आमदनी में भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। 
  • दूसरी तरफ, लोन की किश्तों का दबाव भी उन पर है। 

इस स्थिति ने उनकी जमा पूंजी को तेजी से खत्म कर दिया है और परिवारों की आर्थिक स्थिति संकट में है। कई कारीगरों ने इस मजबूरी के चलते अपने काम को छोड़ने की योजना बनाई है।

सरकार और संस्थानों की भूमिका

कारीगरों को ऋण प्रदान करना एक सकारात्मक कदम था, लेकिन यह अधूरेपन का शिकार हो गया। सिर्फ वित्तीय सहायता ही काफी नहीं है। यदि बाजार का अभाव होगा, तो कर्ज का पैसा भी बेकार चला जाएगा और कारीगर गंभीर आर्थिक संकट में फंस जाएंगे।

सरकार और संस्थानों को निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए:

  • बाजार का निर्माण करें – स्थानीय मेलों, प्रदर्शनी और ऑनलाइन मंचों को बढ़ावा दिया जाए।
  • प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करें – कारीगरों को डिज़ाइन, पैकिंग और डिजिटल मार्केटिंग के क्षेत्र में प्रशिक्षण दिया जाए।
  • सहकारी समितियाँ बनाएं – कारीगर मिलकर उत्पादन और बिक्री के कार्यों को अंजाम दें ताकि लागत में कमी आए और लाभ में वृद्धि हो।
  • ब्रांडिंग और प्रचार करें – जैसे मुज़फ़्फ़रपुर की लहठी को ‘जियोग्राफिकल’ पहचान दिलाने के लिए अभियान चलाना चाहिए।

निष्कर्ष

मुज़फ़्फ़रपुर के लहठी कारीगरों की कहानी सिर्फ आर्थिक कठिनाइयों की नहीं है, बल्कि यह सांस्कृतिक विरासत के खोने के खतरे को भी दर्शाती है। हालांकि लोन प्राप्त होना एक सकारात्मक कदम था, लेकिन बाजार की कमी ने इसे एक बोझ में बदल दिया है।

यदि सरकार, विभिन्न संस्थाएँ और समाज मिलकर इन कारीगरों का समर्थन करें, तो उनकी आजीविका न केवल सुरक्षित रहेगी बल्कि बिहार की पारंपरिक कला भी जीवित रहेगी।

इस स्थिति में केवल लोन की आवश्यकता नहीं है, बल्कि बाजार के अवसर, प्रशिक्षण और संरक्षण की भी आवश्यकता है। तभी लहठी कारीगरों के जीवन में रोशनी आएगी और यह अनमोल कला आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित रह पाएगी।

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